[ लाल्टू भौतिकी के प्रोफ़ेसर हैं । कवि और कहानीकार हैं । अध्यापक राजनीति से भी जुड़े रहे हैं । ब्लॉग के माध्यम को भी उन्होंने तरजीह दी। इन दिनों मुझे उन्हें बार – बार घेरने का मौका मिला है । नतीजन , उनकी कवितायें मिली हैं । ]
१. स्केच २००८
अभी कोई घंटे भर पहले शाम हुई है
हाल के महीनों में धड़ाधड़ व्यस्त हुए
इस इलाके की सड़क पर दौड़ रही हैं गाड़ियाँ
कहीं न कहीं हर किसी को जाना है औरों से पहले
और शाम है कि अपनी ही गति से उतर रही है
एक काला शरीर सड़क के किनारे
पड़ा है इस बेतुकी लय में बेतुके छंद जैसा
ठीक इस वक्त पास से गुजर रहे हैं दो विदेशी
महिला ने माथे पर पट्टी पहनी है
अंग्रेज़ी की खबर रखने वाले इसे वंडाना कहते हैं
दो चार की जुटी भीड़ से बचते जैसे निकले हैं वे
इसे नीगोशिएट करना कहते हैं
हालांकि इस शब्द का सही मतलब संधि सुलह जैसा कुछ है
दो चार लोग जो जुटे हैं आँखें फाड़ देख रहे हैं
आम तौर पर होता कोई पियक्कड़ यूँ सड़क किनारे गिरा
थोड़ा बहुत बीच बीच में हिलता हुआ
पर यह मरा हुआ शरीर है बिल्कुल स्थिर
दो चार में एक दो कुछ कह रहे हैं जैसे
कि कौन हो सकता है या है
यह शरीर किसी गरीब का
उतना ही कुरुप जितनी सुंदर वह विदेशी महिला
क्या कहें इसे यथार्थ या अतियथार्थ
यह भी सही सही अंग्रेज़ी में ही कहा जाता है
वैसे भी इन बातों पर विषद् चर्चा करने वाले लोग
कहाँ कोई भारतीय भाषा पढ़ते हैं
इस स्केच में अभी पुलिस नहीं है
बाद में भी कोई ज्यादा देर पुलिस की
इसमें होने की संभावना नहीं है
भारत के तमाम और मामलों की तरह पुलिस कहाँ होती है
और किसके पक्ष या किसके खिलाफ होती है
यह भाषाई मामला है
बहरहाल फिलहाल इस स्केच को छोड़ दें
जो मर गया है उसको मरा ही छोड़ना होगा
अगर थोड़ी देर रोना है तो रो लो
पर जो ज़िंदा हैं उनके लिए रोने की अवधि लंबी है
इसलिए आँसुओं को बचाओ और आगे बढ़ो। (प्रतिलिपि-जून २००९)
२.अश्लील
एक आदमी होने का मतलब क्या है
एक चींटी या कुत्ता होने का मतलब क्या है
एक भिखारी कुत्तों को रोटी फेंककर हँसता है
मैथुन की दौड़ छोड़ कुत्ते रोटी के लिए
दाँत निकालते हैं
एक अखबार है जिसमें लिखा है
एक वेश्या का बलात्कार हुआ है
एक शब्द है बलात्कार जो बहुत अश्लील है
बर्बर या असभ्य आचरण जैसे शब्दों में
वह सच नहीं
जो बलात्कार शब्द में है
एक अंग्रेज़ी में लिखने वाला आदमी है
तर्कशील अंग्रेज़ी में लिखता है
कि वेश्यावृत्ति एक ज़रुरी चीज है
उस आदमी के लिखते ही
अंग्रेज़ी सबसे अधिक अश्लील भाषा बन जाती है
(पश्यंतीः – अक्तूबर-दिसंबर २०००)
३. डरती हूँ
जब तुम बाहर से लौटते हो
और देख लेते हो एकबार फिर घर
जब तुम अंदर से बाहर जाते हो
और खुली हवा से अधिक खुली होती तुम्हारी श्वास
अंदर बाहर के किसी सतह पर होते जब
डरती हूँ
डरती हूँ जब अकेले होते हो
जब होते हो भीड़
जब होते हो बाप
जब होते हो पति आप
सबसे अधिक डरती हूँ
जब देखती तुम्हारी आँखो में
बढ़ते हुए डर का एक हिस्सा
मेरी अपनी तस्वीर।
–हंस–अप्रैल १९९८
४.उसकी कविता
उसकी कविता में है प्यार पागलपन विद्रोह
देह जुगुप्सा अध्यात्म की खिचड़ी के आरोह अवरोह
उसकी हूँ मैं उसका घर मेरा घर
मेरे घर में जमा होते उसके साथी कविवर
मैं चाय बनाती वे पीते हैं उसकी कविता
रसोई से सुनती हूँ छिटपुट शब्द वाह-वाह
वक्ष गहन वेदांत के श्लोक
अग्निगिरि काँपते किसी और कवि से उधार
आगे नितंब अथाह थल-नभ एकाकार
और भी आगे और-और अनहद परंपार
पकौड़ों का बेसन हाथों में लिपटे होती हूँ जब चलती शराब
शब्दों में खुलता शरीर उसकी कविता का जो दरअस्ल है एक नाम
समय समय पर बदलती कविता, बदलता वर्ण, मुक्त है वह
वैसे भी मुझे क्या, मैं रह गई जो मौलिक वही एक, गृहिणी
गृहिणी, तुम्हारे बाल पकने लगे हैं
अब तुम भी नहीं जानती कि कभी कभार तुम रोती हो
उसकी कविता के लिए होती हो नफ़रत
जब कभी प्यार तुम होती हो।
(हंस १९९७)
५. अर्थ खोना ज़मीन का
मेरा है सिर्फ मेरा
सोचते सोचते उसे दे दिए
उँगलियों के नाखून
रोओं में बहती नदियाँ
स्तनों की थिरकन
उसके पैर मेरी नाभि पर थे
धीरे-धीरे पसलियों से फिसले
पिंडलियों को मथा-परखा
और एक दिन छलाँग लगा चुके थे
सागर-महासागरों में तैर तैर
लौट लौट आते उसके पैर
मैं बिछ जाती
मेरा नाम सिर्फ ज़मीन था
मेरी सोच थी सिर्फ उसके मेरे होने की
एक दिन वह लेटा हुआ
बहुत बेखबर कि उसके बदन से है टपकता कीचड़
सिर्फ मैं देखती लगातार अपना
कीचड़ बनना अर्थ खोना ज़मीन का।
–हंस–अप्रैल १९९८
६. हमारे बीच
जानती थी
कि कभी हमारी राहें दुबारा टकराएंगीं
चाहती थी
तुम्हें कविता में भूल जाऊँ
भूलती-भूलती भुलक्कड़ सी इस ओर आ बैठी
जहाँ तुम्हारी डगर को होना था ।
यहाँ तुम्हारी यादें तक बूढ़ी हो गई हैं
इस मोड़ पर से गुज़रने में उन्हें लंबा समय लगता है
उनमें नहीं चिलचिलाती धूप में जुलूस से निकलती
पसीने की गंध ।
तुम्हारे लफ्ज़ थके हुए हैं
लंबी लड़ाई लड़ कर सुस्ता रहे हैं
मैं अपनी ज़िद पर चली जा रही हूँ
चाहती हुई कि एकबार वापस बुला लो
कहीं कोई और नहीं तो हम दो ही उठाएंगे
कविताओं के पोस्टर ।
मैं मुड़ कर भी नहीं देखती
कि तुम तब तक वहाँ खड़े हो
जब तक मैं ओझल नहीं होती ।
लौटकर अंत में देखती हूँ
हमारे बीच मौजूद है
एक कठोर गोल धरती का
उभरा हुआ सीना । (पल-प्रतिपल २००५)
७. मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
अगर ऐसा पूछो तो मैं क्या कहूँगा।
बीता हुआ वक्त तुमसे ले सकता हूँ क्या?
शायद ढलती शाम तुम्हारे साथ बैठने का सुख ले सकतआ हूँ। या जब थका हुआ
हूँ, तुम्हारा कहना,
तुम तो बिल्कुल थके नहीं हो, मुझे मिल सकता है।
तुम्हें मुझसे क्या मिल सकता है?
मेरी दाढ़ी किसी काम की नहीं।
तुम इससे आतंकित होती हो।
असहाय लोगों के साथ जब तुम खड़ी होती हो, साथ में मेरा साथ तुम्हें मिल सकता है।
बाकी बस हँसी-मजाक, कभी-कभी थोड़ा उजड्डपना, यह सब ऊपरी।
यह जो पत्तों की सरसराहट आ रही है, मुझे किसी का पदचाप लगती है,
मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?
– अगस्त २००५
पहले तो आपका शुक्रिया…लाल्टू जी को घेरने के लिए…
कुछ तो पहले पढी थी, पर कई इस नाचीज़ के लिए नई थी..एकदम ताज़ा..
बहुत ही गहरा अहसास…इनसे गुजरना वाकई में एक अनोखा अनुभव था…
और इनकी सारी छवियों में उतरपाना तो कई-कई पाठ के बाद ही…
लाल्टू के कवि को सलाम…
जीवन के अर्थ खोजती बताती इन कविताओं के लिए आप का आभार!
good
बहुत अच्छी कवितायें. आभार आप का.
लाल्टू जी की कवितायेँ पढाने का शुक्रिया|
अव्वल तो उनको स्वयं की कविता ब्लॉग में लिखने का समय नहीं मिलता होगा, फिर क्या पता एक संकोच, जिसको साधारणतः कवि-सुलभ नहीं माना जाता, उन्हें रोकता हो ?
इसलिए इस प्रयास के लिए विशेष धन्यवाद|
कवितायें गंभीर हैं, इसलिए गंभीर टिप्पणी मांगती हैं , जो मेरे क्षमता के बाहर हैं | मैं कवितायें सिर्फ महसूसती हूँ|
बहूत_ अच्छी लगी |
स्वाति
बहुत सुन्दर रचना….बहुत बहुत बधाई….
वाह सभी बहुत सुन्दर हैं।
bahut sunder kavitaaye h zindgi ke kaafi kareeb h.
पिंगबैक: इस चिट्ठे की टोप पोस्ट्स ( गत चार वर्षों में ) « शैशव